महात्मा गांधी की जयंती 2 अक्टूबर को हर साल देश का एक वर्ग सोशल मीडिया पर गांधी विरोधी ट्रेंड चलाता है। आप में से भी बहुत सारे लोग ऐसे होंगे जो गांधी के बारे में सकारात्मक विचार नहीं रखते। यहाँ तक गांधी पर लेख लिखने वाले लेखक भी दो धाराओं में बंटे हुए नजर आते है, दक्षिणपंथी विचारधारा के लेखक जहाँ उन्हें एक ‘अवसरवादी’ बताने की कोशिशों में लगा रहता है वही समाजवादी और उदारवादी लेखक उन्हें एक महान राजनेता और ‘राष्ट्रपिता’ के तौर पर प्रस्तुत करते है। वहीं गांधवादी लेखक उन्हें एक ‘युगपुरुष’ और महान ‘दार्शनिक’ मानते है।
लेकिन इस बीच युवाओं के सामने सबसे बड़ी दुविधा ये आती है कि वे किन विचारों को माने? कौन सा विचार सर्वाधिक उचित है? दक्षिणपंथी विचारकों के अनुसार तो गांधी एक अवसरवादी नेता है जो अपने राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते किसी भी आन्दोलन पर केवल अपना ही नियंत्रण स्थापित करना चाहते। ऐसे विचारक महात्मा गांधीजी को हिन्दू समुदाय के हितों में भी बाधक मानते थे लेकिन ये इस बात को नहीं स्वीकारते कि “किसी भी राजनेता के लिये अपने निर्णय से सभी पक्ष को संतुष्ट करना संभव नही होता” यहाँ तक कि कई विचारक गांधी की हत्या का भी समर्थन कर देते हैं।
जबकि दूसरी ओर उदारवादी विचारक उनके हर एक कदम का समर्थन करते है चाहे वह गांधी के आंदोलन का तौर तरीका हो या विभाजन के समय गांधी द्वारा दिखाया गया मुस्लिम समुदाय के प्रति उदार रवैया या फिर पंडित नेहरू को अपना उत्तराधिकारी चुनना। यद्यपि गांधी एक महान राजनेता, दार्शनिक और युगपुरुष थे लेकिन इस तथ्य को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि कोई भी व्यक्तित्व सर्वथा त्रुटिरहित नहीं हो सकता।
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गांधी को राष्ट्रपिता के तौर पर सबसे पहले संबोधित करने वालो सुभाषचंद्र बोस थे। उन्होंने 4 जून 1944 को सिंगापुर में एक रेडियो संबोधन में महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया था। यद्यपि सुभाषचंद्र बोस से गांधी जी के कई विषयों को लेकर मतभेद थे जिसमे प्रमुख था प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों के विरुद्ध प्रारंभ किये जाने वाले आंदोलन का तरीका कैसा हो।
दोनों ही महापुरुषों ने अलग तरीका अपनाया लेकिन सुभाषचंद्र बोस ने अपने अभियान को प्रारम्भ करने से पूर्व गांधी जी को आशीर्वाद मांगने हेतु एक पत्र भेजा था। जवाब में गांधी जी ने उन्हें वैश्विक नेता बनने का आशीर्वाद दिया था। लेकिन आज उनके मतभेदों गांधी विरोधी वर्ग द्वारा बेहद ही विपरीत तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। ये वर्ग सुभाषचंद्र बोस को देश के सच्चे राष्ट्रपिता के तौर पर स्वीकार करते है।
गांधी ने पूरे जीवनकाल में कांग्रेस से एक निश्चित दूरी बनाये रखने का प्रयास किया क्योंकि शायद वे ये जानते थे कि सभी दलों, विचारों को साथ लाने के लिये उन्हें गैर राजनीतिक बनकर ही कार्य करना होगा। परंतु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उन्हें हमेशा से ही एक कांग्रेसी ही माना, और आने वाले सभी चुनावों में गांधीजी को सामने रखकर वोट माँगा।
यह भी एक कारण था कि अन्य पार्टी के नेतागण गांधी जी के काट के तौर पर उनके बारे में व्याप्त नकारात्मक विचारों को तूल देने लगे, क्योंकि उनके पास कुछ चारा भी नहीं था और आज वही नकारात्मकता इतनी बढ़ गयी है कि सोशल मीडिया पर हैशटैग “नाथूराम गोड्से जिंदाबाद” जैसे ट्रेंड पॉपुलर हो रहे है।
एक राजनेता के कार्यो का मूल्यांकन बहुत ही जटिल कार्य होता है, क्योंकि उसके निर्णयों की समाज के किस वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है इसका कोई भी पूर्ण अनुमान नहीं लगा सकता। गांधी जी को राष्ट्रपिता कि पदवी इसलिए उचित लगता है क्योंकि उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में देश के विभिन्न वर्गो को क्षेत्रो को एक साथ लाने का कार्य किया जैसे महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, मुस्लिमों आदि को।
गाँधी जी नहीं होते तो इनकी ऊर्जा अलग-अलग संघर्ष करके धीरे-धीरे क्षीण हो जाती। इसके अलावा गांधी जी को राष्ट्रपिता मानना इसलिए भी उचित प्रतीत होता है क्योंकि उन्होंने आंदोलन को अंत तक अहिंसात्मक रखने का प्रयास किया ताकि अंग्रेजों द्वारा आंदोलन को दबाने के नाम पर आम लोगो की निर्मम हत्या न किया जा सके। इस प्रकार की सोच परिवार में एक पिता की ही होती है।
लोग आज कैसे भी करे लेकिन सन् 1917 से लेकर 1948 तक गांधी जी का नाम सुनते ही लोगों में अनंत ऊर्जा का संचार होने लग जाता है। देश के सभी दिशाओं में सभी राज्यों में उन्हें इतनी ज्यादा स्वीकृति मिल चुकी थी जितना किसी अन्य नेता को नहीं। इन्ही सब कारणों से महात्मा गांधी जी को राष्ट्रपिता के तौर पर बिना किसी सोच विचार के ही स्वीकार कर लिया गया। आप अपनी राय कॉमेंट करके रख सकते है।
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