चीन की विदेश नीति का रोचक पक्ष

चीन और भारत दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं का नेतृत्व करते है। दोनों देशों में रंग रूप और भाषा को यदि छोड़ दिया जाए तो कई चीजें समान नजर आती है। जैसे प्राचीन इतिहास की महाशक्तियां, लंबे समय तक गुलाम रहना, एक साथ स्वतंत्र होना, बड़ी आबादी होना और बहुलता वादी संकृति रखना। लेकिन एक साथ स्वतंत्र होने के बाउजूद चीन की विदेश नीति और आर्थिक नीति दुनिया में सबसे अनोखी रही। चीन की विदेश नीति के ऐसे ही एक बेहद ही रोचक पक्ष के बारे में आइए जानते है।

चीन की विदेश नीति का रोचक पक्ष

इक्कीसवीं सदी में चीन जितना शायद ही किसी देश ने अपना आर्थिक विस्तार किया होगा। चीन का व्यापार आज लगभग दुनिया के सभी देशों से होता है। लेकिन आप इस तथ्य को शायद ही जानते होंगे कि चीन अपनी विदेश नीति में मित्र देश की नागरिक और नागरिकों के हितों को तरजीह नहीं देता। जैसा कि भारत, अमरीका और अन्य प्रजातांत्रिक देश करते है।

चीन की विदेश नीति: रोचक पहलू

यह सुनने में इतना रुचिकर तो नही लगता लेकिन व्यवहार में देखने पर आपको अच्छे से समझ आएगा। टीवी और समाचारों में आपने भारतीय प्रधानमंत्री को किसी भी विदेशी दौरे पर वहां के मंदिर, मस्जिद, और अन्य मशहूर दर्शनीय स्थलों में जाते है ताकि वहां के लोगों से सीधा जुड़ाव बनाया जा सके। इसके शासन कर रहे राष्ट्रप्रमुख पर राजनीतिक दबाव बनता है। इससे संबंधित देश का राष्ट्रप्रमुख स्वत: ही भारत या मेहमान राष्ट्र के हित में निर्णय लेने के लिए बाध्य हो जाते है।

चीन में कैसी सरकार है?

दरअसल प्रजातंत्र में हर नीति यहां तक के विदेश नीति में भी जनता के दबाव का सामना शासक या सत्तारूढ़ दल को करना पड़ता है। लेकिन जैसा कि आप जानते है चीन में केवल एक ही दल की सरकार है। वहां डेमोक्रेसी नही बल्कि एक दल की तानाशाही या समाजवादी व्यवस्था है। जिसमे जनता का अधिक महत्व नहीं है। इसीलिए वह अन्य देशों में भी जनता से जुड़ाव या कनेक्ट होने पर ध्यान नहीं देता इसके स्थान पर वह शासक से या सत्तारूढ़ दल से दबाव या लोन डिप्लोमेसी के जरिए संवाद स्थापित करती है।

हालांकि हालिया कुछ दौरों से इस नीति पर चीन के रवैए में बदलाव आया है। जैसे श्रीलंका के दौरे पर विदेश मंत्री वांग्यी ने कई बौद्ध मठों का दौरा करके वहां के लोगो से कनेक्ट होने का प्रयास किया।

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